नॉमिनी
मधु अरोड़ा
(1)
तुम्हारी हर बार की चुप्पी का क्या अर्थ समझूं? जब जब मैं तुमसे तुम्हारे परिवार के बारे में कोई सवाल करती हूं या जानना चाहती हूं तुम ख़ुद को ख़ोह में क्यों बंद कर लेते हो? कभी बता पाओगे? तुम्हारे पिताजी जो उल्टी-सीधी ख़तो-किताबत करते रहते हैं इसका क्या अर्थ लगाऊं?
एक मुसीबत से उबरती हूं तो दूसरी खड़ी हो जाती है। इन मुसीबतों को भी क्या मैं ही मिलती हूं? देख लो रवि, सारी कारस्तानियां तुम्हारे परिवार से ही क्यों शुरू होती हैं? तुम्हारी पसन्द हूं न मैं? फिर अपना मुंह क्यों नहीं खोलते? तुम्हारी शह से मेरी तो जान पर बन आई है।
ऐसे ख़त न आयें तो हमारी ज़िन्दगी कितनी खुशनुमा हो जाये। सपना हर बार कहती है कि उसे एक समय खाना मंजू़र है पर ये रोज़ रोज़ की किच-किच। ये लोग हर समय क्यों उसके पीछे पड़े रहते हैं?
यहां तक रवि भी, जो उसके पति हैं जिनकी वजह से वह इस घर में आई है। एक क़ाग़ज़ के टुकड़े को हाथ में लिये सपना उस अतीत में चली जाती है जब पहली बार उसके साथ ऐसा हुआ था और रवि जानलेवा चुप्पी साध गये थे।
सपना वॉशरूम से निकलने की तैयारी में ही थी कि घर के दरवाज़े की बजती घंटी ने उसे बरबस वॉशरूम से निकलने पर विवश कर दिया था। उसने जैसे-तैसे गाउन को लपेटा और गीले पैरों से रपटती हुई सी दरवाज़ा खोलने आई। अधखुले दरवाज़े से डाकिये को देखा।
वह हंसते हुए बोला, ‘मेमसाब, काम पर नहीं गईं आज?’ सपना ने हंसते हुए कहा, ‘काम पर गई होती तो दरवाज़ा कैसे खोलती? और हाथ बढ़ाकर चिठ्ठी ले ली। साथ ही धड़ाक से दरवाज़ा बन्द कर लिया।
रवि का तबादला दूसरे शहर में हो गया है पर चिठ्ठियां अहमदाबाद के पते पर ही आती हैं। इस चिठ्ठी पर रवि का ही नाम है। पहले तो सोचा कि पत्र खोल ले पर फिर पत्र को वैसे ही मेज पर रख दिया।
वह सामान्यत: रवि के पत्र खोलती ही नहीं। पर आज कुछ सोचकर उसने पत्र खोला है और उसमें एक छोटा सा काग़ज़ का टुकड़ा और चार लाईन का पत्र है। वैसे भी रवि के पिताजी में सिर्फ़ रवि का ही नाम होता है। न सपना का नाम और न बच्चों को आसीस के दो शब्द।
‘रवि बेटे, आशीर्वाद। तुम्हारे हिस्से के एक लाख रूपये सज्जू के खाते में डाल दिये हैं। तुमको जब ज़रूरत हो तो सज्जू को बता देना। वह तुम्हारे खाते में इन रूपयों को ट्रांसफर कर देगा। तुम्हारा- डैडी और हां, उन रूपयों की रसीद भी है।‘
सपना ने उड़ती नज़र से उस रसीद को देखा जिसमें सज्जू और रवि का नाम लिखा था। पूरी रसीद को देखा तो रसीद के दायीं ओर नॉमिनी की जगह सज्जू की पत्नी सजीला का नाम था। नॉमिनी सजीला कैसे हो सकती है भला?
यह क्या नया फंडा है? सपना तो अभी ज़िन्दा है, बच्चा है। यदि सपना को नॉमिनी नहीं बनाना था तो कोई बात नहीं, पर इधर तो रवि के बच्चे का भी नाम नहीं है। एक नई मुसीबत सिर पर आन खड़ी हुई। बड़ा नाज़ुक मसला है। क्या करे?
अब सपना को समझ में आ रहा था कि ये लोग बिना दहेज के शादी के लिये क्यों तैयार हो गये थे। उन्हें यह लगा था कि दहेज न लाने की वजह से सपना हमेशा रवि की मुठ्ठी में रहेगी और एक तरह से वह अहसान तले दबी रहेगी। ये लोग मनमानी करते रहेंगे।
इस पत्र ने सपना को यह सोचने के लिये मज़बूर कर दिया यदि आज वह अपनी आवाज़ नहीं उठायेगी तो आगे की जि़न्दगी दूभर हो जायेगी। उसे याद आया कि उसके बेटे के जन्म पर भी किसीको कोई खुशी नहीं हुई बल्कि ससुराल से पत्र आया,
‘अब तो रवि की कमाई में से हमें कुछ नहीं मिल पायेगा। बच्चे तो रवि की कमज़ोरी हैं। अब हमारे ऊपर किया जानेवाला बच्चे के हिस्से में चला जायेगा।‘ इस लचर बात पर सपना सिर्फ़ हैरान ही हो सकती थी।
इस बीच रवि का तबादला दूसरे शहर में हो गया। सपना जिस तरह का सबका रुख़ देख रही थी, उसे अपना नौकरी करना ज़रूरी लग रहा था। उसने रवि को अपना निर्णय सुना दिया था कि वह नौकरी नहीं छोड़ेगी।
रवि उसके दृढ़ निश्चय के आगे कुछ नहीं कह सके। एक तरह से सही भी था कि तीन साल बाद रवि को वापिस यहीं आना था। सो बिना किसी बहस के वे सपना को उसके ऑफिस के कैंपस में शिफ्ट करवाकर वे अहमदाबाद से चले गये।
जब रवि के माता-पिता को पता चला तो वे अपने मयसामान वहां पहुंच गये। अब रवि का अहमदाबाद आना कम हो गया। इस बीच रवि के पापा का एक ख़त सपना को मिला। पता नहीं रवि का नसीब खराब था कि वह पत्र सपना के हाथ लग गया।
सपना ने पत्र को खोला, ‘बेटे रवि, यदि वह तुम्हारा कहना नहीं मानती तो तुम उसको छोड़ दो। तुम्हें क्या कमी है। अपनी जात की ही लड़की देख लेंगे। ‘हम्.. तो यह बात है। इन बनियों को ब्राह्मण लड़की रास नहीं आ रही। हर जगह मनमानी? हद्द है।
सपना रवि को तो छोड़ने से रही। एक बार को छोड़ भी दे तो क्या इन लोगों की आदतें बदल जायेंगी क्या? यह समय निर्णय लेने का है, हाथ पर हाथ रखकर बैठने का नहीं। यदि वह सोचती ही रहीं तो बात उसके वश से बाहर हो जायेगी।
वह उठी और उस पत्र की एक ज़ेरॉक्स कॉपी करवाकर मूल पत्र रवि को रवाना कर दिया। पत्र पाने के एक सप्ताह के अन्दर रवि और पापा अहमदाबाद में थे।
वह उन दोनों से कुछ नहीं बोली। कुछ बोलने लायक रह ही नहीं गया था। अब तो अपने ससुर के उस हौसले को तोड़ना था कि आगे वे अपने बेटे को ऐसी राय देने से पहले दो बार सोचें। वह उनको तडके मॉर्निंग वॉक पर ले गई।
ससुरजी सपना के साथ अकेले जाने से हिचक रहे थ। उन्होंने सपना के तेवर को भांप लिया था।
बगीचे में पहुंचकर सपना ने पूछा, ‘पापा, आपने क्या सोचकर रवि को यह बात लिखी?’ वे अनजाने से होकर बोले, ‘कौन सी बात?’ इस पर सपना ने कहा, यह आप अच्छी तरह जानते हैं। लेकिन एक बात सुन लीजिये कि इस तरह की बात दोबारा नहीं होना चाहिये।‘
इस पर ससुरजी बोले, ‘तुम रवि का साथ नहीं दे रहीं। तुम्हारे होते हुए वह दूसरे शहर में अकेला है। वो तो हम लोग आ गये हैं, इसलिये उसे घर की रोटी मिल रही है। हमने तो इसलिये कहा था। दो दो घर वह कैसे चलायेगा?’
अपने ही बेटे का घर तोड़ने की कोशिश की, आपको कुछ लगा नहीं? मैं साथ नहीं दे रही, यह आप कैसे कह सकते हैं? आपको पता है, रवि ने अपने भाई-बहनों की शादी के लिये कितने कर्ज़ लिये हैं। आधा वेतन तो कट जाता है। अपने बच्चे को भूखा रखें?
... मैं इस बात को ज्य़ादा बढ़ाना नहीं चाहती। मैं शनिवार की आप लोगों की टिकट बुक करवा रही हूं।‘ इस पर वे बोले, ‘रवि कुछ दिन रहने के लिये आया है।‘ इस पर सपना ने उत्तर देना ज़रूरी नहीं समझा।
इसके बाद उन दोनों के बीच कोई बात नहीं हुई। वैसे भी और क्या कहना-सुनना बाकी रह गया था। दोनों घर आये। अपनी मुखरता पर सपना चकित थी। पर कहते हैं न कि घोड़ा चाल सिखा देता है। वक्त़ सब कुछ करना सिखा देता है।
थोड़ी देर बाद सपना तैयार होकर बाहर जाने लगी तो रवि ने कहा, ‘कहां जा रही हो? खाना बनाने का वक्त़ हो रहा है। पापा जल्दी खाते हैं।‘ घड़ी देखते हुए वह बोली, ‘अभी साढ़े दस ही बजे हैं। एक घंटे में वापिस आती हूं।‘ कहकर दरवाज़ा उड़काकर नीचे उतर गई।
एक घंटा बीतने में देर ही कितनी लगती है? उसने घर की घंटी बजाई। रवि के पिताजी ने दरवाज़ा खोला। मीठे स्वर में बोले, ‘सपना, तुम कहां चली गई थीं? बताकर तो जाना था।‘ सपना को इस दिखावटी अपनेपन से क्या फर्क़ पड़नेवाला था।
उसने रवि के सामने दोनों टिकट रख दीं। रवि ने कहा, इतनी क्या जल्दी थी टिकट लाने की? अभी तीन ही तो दिन हुए हैं हमें आये हुए। दो टिकट क्यों लाई हो? अब ले ही आई हो तो पापा चले जायेंगे। वहां मम्मी अकेली हैं।
....मैं कुछ दिन यहां रहूंगा। वैसे भी वे अपने पोते से मिलने आये हैं।‘ सपना ने कहा, ‘प्लीज़ रवि, अभी तुम भी चले जाओ, बाद में आ जाना। मुझे अकेलेपन की बहुत ज़रूरत है। चाहो तो बेटे को अपने साथ ले जाओ।‘
सपना के ठंडे स्वर को सुनकर रवि की और बोलने की हिम्मत नहीं हुई। आखि़र शनिवार आया और रवि व उनके पापा वापिस चले गये। दोनों की यह ख़ासियत थी कि वे दोनों कभी अपनी ग़लती न तो मानते थे और नही माफी मांगते थे।
उन दोनों ने एक बार भी सपना की बेरुख़ी का कारण नहीं पूछा। इसके विपरीत ऐसा मुंह बना लिया कि मानो सारी ग़लती सपना की ही हो। दोनों ने अपने बैग उठाये और अपने बेटे का गाल चूमकर चले गये। सपना से तो बाय करने का सवाल ही नहीं उठता था।
रवि के पापा इस बात से सख्त़ ख़फा थे कि रवि सपना को अपने मन मुताबिक नहीं चला पा रहा था। वे हर समय यह कोशिश करते कि सपना और रवि में खटकती रहे और एक दिन सपना रवि के आगे झुक जाये। सपना को छोड़ने तक की तो राय दे डाली अपने बेटे को।
इधर सपना थी कि वह बिना वज़ह कोई भी ग़लत समझौता नहीं करना चाहती थी। बड़ी कशमकश में जी रही थी सपना। किसीसे कह भी नहीं सकती थी। रवि उसकी अपनी पसन्द थी। उसने कभी भी अपने घर की बात मायके में नहीं की थी।
वह अपने माता-पिता को किसी भी तरह का टेंशन नहीं देना चाहती थी। जब वह उनके लिये कुछ कर नहीं सकती थी तो उनको परेशान करने का उसे क्या हक़ था भला? वह सबकुछ ख़ुद पर झेल रही थी।
इस तरह अलग रहते रहते क़रीब पांच साल बीत गये थे। रवि का तबादला वापिस अहमदाबाद हो गया। इसका सबसे ज्य़ादा दुख रवि के मम्मी पापा को हुआ। उन्हें वापिस कानपुर जाना पड़ा।
धीरे-धीरे सपना और रवि में समझौता हुआ और उन्होंने अपने दांपत्य जीवन को फिर से पटरी पर लाने की कोशिश शुरू कर दी। सपना को आज तक समझ में नहीं आया है कि रवि अपने पापा के सामने क्यों निरुत्तर हो जाते हैं?
रवि का तर्क होता है कि उन्होंने आज तक अपने पापा को पलटकर उत्तर नहीं दिया है। अजीब तर्क है यह। अरे, ग़लत को ग़लत कहने का साहस तो होना चाहिये। इतने आज्ञाकारी बेटे भला किस काम के? जो अपनी पत्नी का मान न रख सकें और न रखवा सकें।
आज इस पत्र और रुपयों की रसीद देखकर सपना को वे सारी पुरानी बातें याद आ गईं। कुछ देर तो वह पेशोपेश में रही कि ससुर को फोन करे या न करे। रवि को घर आ जाने दे, तब बात करे। रवि कभी नहीं कहेंगे कि वह पैसों की बात के लिये पापा को फोन करे।
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